महाभारत के संदर्भ में कहा जाता है कि जो नहीं महाभारत में वह है ही नहीं जगत में। वेदों का रहस्य, उपनिषदों का तत्वज्ञान, इतिहास, त्रिकाल का निरूपण, मृत्यु, भय का अर्थ, वर्णाश्रम, धर्म, नीति, राजनीति, समाज, अर्थशास्त्र, तंत्रज्ञान, खगोल, मानसशास्त्र, अनुसंधान, इत्यादि समस्त विषयों पर महाभारत में भाष्य मिलता है। आश्चर्य तब होता है जब हम महाभारत में ऐसे विषयों को भी देखते हैं जिनकी आज हम कल्पना भी नहीं कर सकते। ऐसा ही एक विषय है कला-कौशल। उस काल में विभिन्न कलाओं का अस्तित्व देखें और स्थिति को समझें तो ज्ञात होता है कि नाट्य कला का उल्लेख महाभारत में मिलता है । उस काल में ब्राह्मण लोग ही नाटकों में अभिनय किया करते थे।
महाभारत का एक श्लोक है 'गांधर्व नारदो वेद, भरद्वाजो धनुग्रहम। देवर्षिचरितं गार्ग्यः कृष्णात्रेयः चिकित्सितं'।। अर्थ है गान शास्त्र के प्रमुख प्रवर्तक देवर्षि नारद, ज्योतिषशास्त्र के गार्ग्य मुनि तथा चिकित्सा शास्त्र के प्रवर्तक कृष्णात्रेय मुनि थे। इस श्लोक के माध्यम से हम समझ जाते हैं कि संगीत और नाटक का विकास गायनशास्त्र के रूप में देवर्षि नारद द्वारा महाभारत काल से पूर्व हो चुका था। अनेक प्रसंगों से यह भी ज्ञात होता है कि उस समय के गुरुकुलों में वेद, धर्मशास्त्र, तत्वज्ञान, राजनीति, व्याकरण, निरुक्त, युद्ध शास्त्र, चिकित्सा शास्त्र, कृषि, गणित, ज्योतिष आदि शास्त्रों के शिक्षण के साथ-साथ गायन कला, स्थापत्य और शिल्प कला की शिक्षा भी दी जाती थी।
ऐसा प्रतीत होता है कि गायन कला मुख्यतः सामवेद के गायन तक ही सीमित रही होगी। शास्त्रीय गायन, वादन का विकास कब हुआ यह महाभारत के संदर्भ में हम निश्चित नहीं कर सकते। संगीत में वादन कला का विकास भी महाभारत काल में हुआ था। राजा परीक्षित से 26 वी पीढ़ी के बाद पांडव कुल में वत्स देश के कोशांबी नगरी में उदयन नाम का राजा राज्य करता था। राजा उदयन वीणा वादन में बहुत कुशल था राजकुलों में यह परंपरा बन चुकी थी कि किसी ना किसी को संगीत सीखना ही है। अवंति के राजा चंद्र महासेन की कन्या भी वीणा वादन सीखती थी। विराट पर्व के एक श्लोक में यह उल्लेख है कि द्रोपदी वीणा के स्वरों के साथ गांधार की मूच्छेना जैसा मधुर शब्द में बोलने लगी वीणेव मधुरालापा गांधारं साधु मूर्छति। अभ्यभाषत पाञ्चाली भीमसेनमनिंदिता। इन उद्धरणों से यह सिद्ध हो जाता है कि संगीतकला का आराधन महाभारत काल में होता था। संगीत का जुड़ाव नृत्य के साथ भी था। अर्जुन ने तो देवलोक में जाकर संगीत और नृत्य का अध्ययन किया था और विराट के प्रासाद में बृहन्नला बनकर उसने उत्तरा को नृत्य और गायन सिखाया भी था।
इस काल में चित्रकला के विकास के तो बहुत उदाहरण मिलते हैं। कलाओं के विविध स्वरूपों का उल्लेख हमें स्थापत्य कला के साथ हुए चित्रांकन के विवरणों में मिलता है। महाभारत के 'सभा पर्व' में मयसभा का संदर्भ आता है। उस मयसभा की दीवारें अनेक चित्रों से चित्रित थीं। उस काल में भवनों का निर्माण मिट्टी के साथ-साथ लकड़ियों से होता था। पत्थर से घर या राजप्रसाद बनाने की कला यवनों और ग्रीक लोगों के पास थी। कृष्णार्जुन ने खांडव वन में एक असुर जिसका नाम मयासुर था, को इस शर्त पर ही जीवनदान दिया था कि इंद्रप्रस्थ में वह उनके लिए एक दिव्य सभाभवन का निर्माण करेगा। मयासुर आयोनियन अर्थात यवन था। जिस भवन का निर्माण उसने किया उसका स्थापत्य और शिल्प इतना उत्कृष्ट तथा कि जहां जल होता था वह फर्श दिखाई पड़ता था और जहां फर्श होती थी वहां जल दिखता था। ऐसे इल्यूजन को उसने वहां साकार किया था। उसने जिस दिव्य सभा भवन का निर्माण किया था उसका आकार विमान जैसा था और उस सभा भवन के साथ ही एक इतना विशाल मैदान भी बनाया था जिसमें विमान उतर सकें। मयसभा का ऐसा विवरण महाभारत के संशोधित संस्करण में भी मिलता है। अब प्रश्न उठता है कि मयासुर ने विमान कहां देखा था? महाभारत काल में विमानों का प्रयोग हुआ करता था। विमानों की अभियांत्रिकी का ज्ञान देवताओं के पास था। देवताओं तथा लोकपालों के विमानों को उतारने के लिए ही मयसभा भवन के पास विशाल मैदान बनाया गया था। शास्त्रों में उल्लेख है कि विमान का तंत्रज्ञान देवताओं ने निवातकवच दानवों को दिया था और उन दानवों ने इस तंत्र ज्ञान का प्रयोग देवताओं के विरुद्ध ही करना शुरू कर दिया था। इस कारण निवातकवच दानवों के सामने देवता निष्प्रभ होने लगे। इसीलिये देवराज इंद्र ने अर्जुन से गुरु दक्षिणा के रूप में निवातकवच दानवों का विनाश मांगा था। अब प्रश्न उठता है कि निवातकवच दानव थे कौन? उल्लेख मिलता है कि ये दानव बहुत ही उछले हुए सागर तट पर रहते थे। उस सागर में बड़े-बड़े कछुए थे, बड़ी मछली और बड़े बड़े मगरमच्छ भी थे। ऐसे तट पृथ्वी पर आज भी हैं और वह स्थान है ईक्वाडोर का गैलापागोस द्वीप समूह प्रान्त है, वहां के लोग मयन कहे जाते हैं। क्या देवताओं ने मयन लोगों को विमानन विद्या सिखाई थी? यह अनुसंधान का विषय हो सकता है किंतु मयंक कैलेंडर, विमान चालकों का प्राचीन शिल्प आज भी वहां मौजूद है, तो क्या मयासुर मयन था ? हो सकता है संभव हो। मयासुर कोई भी हो लेकिन उसने इंद्रप्रस्थ में पांडवों के लिए निश्चित ही एक अद्भुत प्रासाद का निर्माण किया था जिसमें अनेक विध हीरे और रत्नों, इंद्रनील मणि, पद्मराग मणि आदि का उपयोग किया था।
स्थापत्य कला के अनेक उदाहरण महाभारत में मिलते हैं, जैसे लाक्षाग्रह आदि किंतु एक उल्लेखनीय उदाहरण और है 'द्वारिका' अथवा 'द्वारावती नगरी' का निर्माण। कृष्ण की द्वारिका भी अद्भुत थी। दो भव्य तटों के अंदर बहुत ही सुंदर नगरी का निर्माण श्रीकृष्ण ने विश्वकर्मा जी से करवाया था। तटबंदी के लिए विशाल पत्थरों का उपयोग किया गया था। पांडवों की इंद्रप्रस्थ नगरी का निर्माण भी विश्वकर्मा जी ने ही बड़े सुनियोजित ढंग से किया था। जब इंद्रप्रस्थ का निर्माण हो रहा था उस समय महर्षि वेदव्यास भी वहां आए थे। महाभारत काल में वैदूर्य मणि, नीलमणि, इंद्रनील मणि, मोती, सुवर्ण, विभिन्न धातुओं, रसायन और उनके साथ विविध प्रकार की कलाएं संगीत, नृत्य, चित्रकला, गायन-वादन कला, वास्तु कला, वस्त्र कला अत्यंत प्रगत थीं इसमें कोई संदेह नहीं है।
राजेंद्र खेर,आनंद नगर, सिंहगड मार्ग, पुणे